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कोहरे का सन्नाटा
कोहरे का सन्नाटा
चुप कोहरे में लंबी पैदल यात्रा।
गिरे हुए रंग-बिरंगे पत्तों और रिमझिम बारिश की बूंदों की ताली।
पक्षियों की चहचहाहट और गिलहरियों की चहचहाहट।
बड़बड़ाते नाले और मंद-मंद बहती हवाएँ।
सब कुछ सन्नाटे की अवास्तविक खूबसूरत दुनिया में।
मैं चौंक कर रुक गया।
क्या मैं किसी ऐसे पवित्र स्थान में जा रहा हूँ जहाँ जाना वर्जित है?
क्या मैं यहाँ का निवासी हूँ?
मुझे चलना चाहिए या नहीं?
मुझे साँस भी लेनी चाहिए या नहीं?
मुझे नहीं लगता कि सन्नाटे को यह पसंद आएगा।
मुझे क्या करना चाहिए?
शायद अपने अस्तित्व को विलीन करके एक हो जाना चाहिए?
पेड़ों में शक्ति बन जाना चाहिए?
पत्तियों में रंग बन जाना चाहिए?
पक्षियों की चहचहाहट में आनंद बन जाना चाहिए?
बड़बड़ाते नालों में ऊर्जा बन जाना चाहिए?
बारिश की बूंदों में नृत्य बन जाना चाहिए?
यह अजीब लगता है, है न?
मुझे कौन समझेगा?
शायद अब चुप हो जाने का समय आ गया है।
हाँ, मौन मौन को समझेगा।
कविता
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